छुक छुक करती गाड़ी आई
ज़ोर से उसने सीटी बजाई
मैंने अपना बस्ता उठाया
और tt को अपना टिकट दिखाया
Tt चौंका और पूछा
गुड़िया ये कहां की टिकट लाई?
यहां तो ना आने का पता ना जाने का ठिकाना लाई…?
मैंने कहा आप तो सबको कहीं पहुंचाते हो
टिकट का क्या काम, आप तो सब जानते हो!
Tt मुस्कुराया और कहा
बताओ बेटी कही भी पहुंचकर करना क्या है?
गुड़िया खरीदनी है या कंगन लेने हैं?
गुड़िया और कंगन बस इतना सरल था लेना, ये सोचकर मेरे चेहरे पर चमक सी आई!
मैंने उछलते गाते पूछा वो गुड़िया क्या मुझसे बात करेगी? क्या मेरे साथ खेलेगी? और मेरे साथ हँसेगी भी? क्या वो गुड़िया मिलेगी जो हर दिन मेरे साथ रहे? और tt सर ऐसे कंगन मिलेंगे क्या जो कभी ना टूटे?
वो गुड़िया को मैं अपनी दोस्त बनाऊंगी और वो सुंदर कंगन उसे ही पहनाऊंगी
बिना रुके, खिड़की के बाहर देख
मैंने tt से कहा
मुझे वहां जाना है जहां फूलो की महक,
जहां चांद की ठंडक
और जहां तारों की चमक थोड़ी अधिक हो
वहां चलें जहां हँसी से ज्यादा खुशी हो,
जहां आंसू से कम दुख हो
और जहां खाने में ज़्यादा स्वाद हो?
निराशा देख tt के मुख मैंने कहा
अरे मैं तो मज़ाक कर रही थी!
मुझे वही पहुंचाएं जहां सब पहुंच रहे
आप परेशान न हों!
मुझे भी वहीं पहुंचाएं जहां ना खुशी की समझ है न दुख की,
जहां शोर बहुत है पर कोई आवाज़ नहीं,
जहां सब साथ हैं पर प्रेम कहीं नहीं
और जहां जीते तो सब हैं बस जिंदगी ही नही।
और ये स्टेशन तो अगला ही होगा, उसके बाद वाला भी, और उसके बाद वाला भी!
टिकट पर पता लिखकर करना क्या है
जब कहीं जाने का और कहीं पहुंचने का कोई संबंध ही ना हो?